सैर सपाटे संग ज्ञान भी
जीवाश्म उपवन
शिवािलक हिमालय में सकेती स्िथत जीवाश्म उपवन जहां एक खूबसूरत पर्यटन स्थल है वहीं पुराजीवाश्मों की लाखों साल पुरानी िवरासत को जानने का मौका देता है। यानी अतीत को वर्तमान से जोड़ने की सार्थक कोिशश। यह उपवन िहमालय की िशवािलक पहािड़यों में िमले दुर्लभ जीवाश्मों के जरिये प्राणी सभ्यता के अतीत एवं क्रमबद्ध िवकास का िवलक्षण आईना भी िदखाता है। जीवाश्म उपवन की सैर करा रहे हैं डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’
एक-दो शताब्दियों से हिमालय भू-वैज्ञानिकों, भूसर्वेक्षकों, पक्षी व जीव विज्ञानियों के साथ-साथ विश्व भर के पर्यटकों का मुख्य आकर्षण बन गया है। सर एडमंड हिलेरी एवं तेनसिंह नोर्गे द्वारा 1953 में एवरेस्ट की चोटी पर कदम रखने के बाद हिमालय विश्व भर के पर्वतारोहियों का चहेता बन गया है। महान भू-वैज्ञानिक गैन्जर के अतिरिक्त प्रसिद्ध भारतीय भू-वैज्ञानिकों डॉ. वाडिया और डॉ. वाल्दिया का हिमालय के भूगर्भीय अध्ययन में विशेष योगदान रहा है।
शिवालिक पर्वतमाला पुराजीवाश्मविदों को विशेष प्रिय रही है। विगत चार दशकों से यहां भू-वैज्ञानिक शोधरत रहे हैं। इस पर्वतमाला में अनेक प्रागैतिहासिक प्राणी जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। सन् 1968 में भू-विज्ञान सर्वेक्षण विभाग के भू-विज्ञानियों एवं जीवाश्मविदों को शिवालिक पहाडि़यों के अध्ययन के दौरान कशेरूकी जीवों के जीवाश्मों का विपुल भंडार मिला था। बहुत से जीवाश्म हिमाचल के सिरमौर जिले के सकेती गांव की निकटवर्ती पहाडि़यों से प्राप्त हुए थे। यहां मिले उत्कृष्ट जीवाश्मों को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग ने हिमाचल प्रदेश सरकार के सहयोग से 23 मार्च 1974 को सकेती की पहाडि़यों में शिवालिक जीवाश्म उपवन (फोसिल पार्क) की स्थापना की। जीवाश्म उपवन का मुख्य उद्देश्य जनसाधारण को बहुमूल्य जीवाश्म सम्पदा के प्रत्यक्ष दर्शन कराना और उन्हें अतीत के बारे में बहुमूल्य व रोचक जानकारी देना था।
भू-भौतिक विज्ञान का शोधार्थी होने के कारण मुझे कुमायूं-गढ़वाल हिमालय शोध कार्य क्षेत्र होने के कारण हिमालय की टौंस, यमुना व भागीरथी घाटियों के असीम, शाश्वत सौन्दर्य को समीप से आत्मसात करने का भरपूर अवसर मिला। पिछले दिनों सकेती जाने का कार्यक्रम बन गया। जनवरी माह की कड़कती ठंड में टैक्सी में जीवाश्म उपवन की ओर रवाना हुए। अम्बाला से चलने के लगभग 20 मिनट बाद गुरुद्वारा पंजोखड़ा साहिब आ गया।
जैसे-जैसे शहजादपुर होते हुए नारायणगढ़ की ओर बढ़ रहे थे, शिवालिक पर्वतमाला की पहाडि़यां धुंधली-धुंधली सी नजऱ आने लगी थी। हम कालाअम्ब की ओर बढ़ रहे थे। कालाअम्ब से हिमाचल प्रदेश की सीमा आरम्भ हो गयी थी। पिछले दो तीन दिनों में हुए बारिश के कारण ही मारकण्डा में पानी नजऱ आ रहा था। यहां पानी अपेक्षाकृत साफ था। हरियाणा में पहुंच कर मारकंडा काफी प्रदूषित हो चुकी होती है। अनेक उत्साही लोग मार्ग में ट्रेकिंग करते हुए पार्क की ओर बढ़ते दिखायी दिये।
शिवालिक जीवाश्म उपवन को एशिया का प्रथम जीवाश्म उपवन होने का गौरव प्राप्त है। अम्बाला से नारायणगढ़, काला अम्ब होते हुए यहां पहुंचने के साथ-साथ चण्डीगढ़ से पंचकूला, नारायणगढ़, काला अम्ब होते हुए डेढ़-दो घण्टों में पहुंचा जा सकता है। नाहन से सुकेती की दूरी मात्र 14 किलोमीटर है। उपवन की देखरेख भारत सरकार के भू-सर्वेक्षण विभाग, इस्पात एवं खनन मंत्रालय व हिमाचल सरकार के संयुक्त प्रयासों से की जाती है। शिवालिक जीवाश्म उपवन क्षेत्र चारों ओर हरीतिमा से आप्लावित है। यह उपवन विश्व के 100 प्रमुख जीवाश्म उपवनों में विशिष्ट स्थान रखता है और इसे एशिया का प्रथम जीवाश्म उपवन होने का गौरव प्राप्त है। प्रागैतिहासिक काल के जीवन को प्रतिबिम्बित करते जीवाश्मों व उनके प्राप्ति स्थलों के परिरक्षण, उनके अध्ययन व लोगों के ज्ञानसंवर्धन तथा मनोरंजन की दिशा में इस उपवन की स्थापना व विकास एक महत्वपूर्ण एवं सराहनीय कदम कहा जा सकता है। सकेती व निकटवर्ती पहाडि़यों से 10 से 25 लाख वर्ष पूर्व तक इस क्षेत्र में विचरण करने वाले जीव जन्तुओं के अनेक जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त ढाई करोड़ वर्ष पूर्व रहे कशेरूकी जीवों के अनेकानेक पुरावशेष मिलने के कारण यह उपवन विश्वविख्यात है।
पहले यह जानना जरूरी है कि जीवाश्म या फोसिल होता क्या है। हजारों लाखों वर्ष रहे किसी पौधे, पक्षी या पशु के प्रस्तरीकृत हो गये अंश को जीवाश्म कहते हैं। लाखों वर्ष पूर्व मृत पक्षी, पशुओं या पौधों के अंश विभिन्न सतहों में दबने के बाद अधिक तापमान व दबाव के चलते कड़े ठोस पदार्थ जो लगभग पत्थर जैसे ही दिखते हैं, में परिवर्तित हो जाते हैं। अतीत को वर्तमान से जोड़ने की पुराजीवाश्मविदों की कोशिश को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हिमालय की शिवालिक पहाडि़यों में मिले दुर्लभ जीवाश्म वस्तुत: हिमालय पर्वतमाला में प्राणी सम्यता के अतीत एवं क्रमबद्ध विकास का विलक्षण आईना हैं। सकेती जीवाश्म उपवन क्षेत्र से मिले प्रागैतिहासिक काल के जीवाश्मों का अध्ययन कर व उन्हें आधार मानकर उस काल के जीवों के मॉडल जगह-जगह पर प्राकृतिक वातावरण में उपवन में लगाये गये हैं। फाइबर ग्लास व रेजिऩ में ढले प्रागैतिहासिक कालीन जीवों के विशालकाय आकार के ये मॉडल दर्शनीय हैं। जिस क्षेत्र में जिस प्राणी के जीवाश्म मिले वहीं उसका मॉडल स्थापित कर दिया गया। जीवाश्मविदों के अनुसार यूं तो प्रागैतिहासिक हाथी, जिराफ, सूअर, घोड़े, शेर, घडि़याल, दरियाई घोड़े, कछुए व अन्य कई प्रजातियों के पुरावशेष इस क्षेत्र में मिले हैं, लेकिन छह प्रमुख प्रजातियों के मॉडल ही प्रदर्शित किये गये हैं।
उपवन की यात्रा करते-करते सर्वप्रथम हमारी नजऱ शेरों की प्रजाति के विशालकाय पशुओं के मॉडल पर पड़ी। अत्यधिक खूंखार व लम्बे दांतों वाले इस जन्तु को खजऱदन्ती बाघ (पेरागेरवेड्स) नाम दिया गया। यह इस क्षेत्र में खूब मिलता था। यह जन्तु ऊपरी लम्बे व भेदक दांतों वाला था। खंजर के समान दांतों वाला यह प्राणी 10 लाख वर्ष पूर्व विलुप्त हो गया। पेड़ों के झुरमुट में इस जन्तु के दो मॉडलों को देखकर इनके जीवित होने का एहसास होता है। खजरदंती बाघ के बारे में सोचते हुए हम आगे बढ़े ही थे कि लम्बी थूथन वाले घडि़यालों की प्रजाति (ग्रोविएलिस ब्राउनी) के जन्तुओं के दो बड़े मनमोहक मॉडल दिखाई दिये। इस प्रजाति के जन्तुओं के कई जीवाश्म यहां प्राप्त हुए हैं। इनका थूथन काफी लम्बा, पतला व नुकीला होता था जिसकी लम्बाई, खोपड़ी के पिछले भाग की चौड़ाई से लगभग तीन गुणा अधिक होती थी। जबड़े में 25-30 नुकीले दांत होते थे। आजकल पाये जाने वाले घडि़यालों से इनका आकार प्रकार तनिक साम्यता लिए हुए प्रतीत हो रहा था।
सबसे अधिक आश्चर्य हमें तब हुआ जब हमें पता चला कि शिवालिक की पहाडि़यों में दरियाई घोड़े व जिराफ की प्रजाति के जन्तुओं के जीवाश्म भी प्राप्त हुए हैं। दरियाई घोड़े की प्रजाति के जंतुओं के जीवाश्मों पर आधारित मॉडल देखकर हमने दांतों तले अंगुली दबा ली। इनके 6 काटने वाले बड़े दांत, अपेक्षाकृत चौड़ा मुंह, छोटी मस्तिष्क गुहा, लम्बे निचले जबड़े तथा सूअर के समान टांगें इन्हें वर्तमान दरियाई घोड़ों से भिन्नता प्रदान करती हैं। दरियाई घोड़े की शिवालिक प्रजाति को हेम्सा प्रोटोडान शिवालेसिस नाम दिया गया है। जिराफ प्रजाति के दो खूबसूरत मॉडल, उपवन में सबसे अधिक ऊंचाई पर अपनी छटा बिखेर रहे हैं। अभी जिराफ व दरियाई घोड़ों की मोहिनी से हम बाहर नहीं आये थे कि दो हाथियों के मॉडल दिखाई पड़े। शिवालिक हिमालय क्षेत्र में 15 से 70 लाख वर्ष पूर्व (प्लायो-प्लायस्टोसीन युग) हाथियों की 15 से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती थीं। इनमें स्टीगोडान गणेशा प्रजाति सर्वाधिक विकसित थी। इन दैत्याकार हाथियों के कपाल अपेक्षाकृत छोटे, गजदंत असाधारण रूप से लम्बे (4-5 मीटर तक), सूंड भारी व हड्डियां स्थूल होती थीं। इनकी अधिकांश प्रजातियां विगत 15 लाख वर्षों में विलुप्त हो गईं। इन्हीं प्रजातियों के जीवाश्म इन पहाडि़यों में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। वर्तमान एशियाई व अफ्रीकी हाथी स्टीगोडान गणेशा प्रजाति के प्रतिनिधियों की अंतिम जीवित सन्तानें हैं। इस प्रजाति के हाथियों के दो भव्य मॉडल दूर से ही दिखाई पड़ते हैं।
जीवाश्म उपवन के प्राकृतिक वातावरण और नयनाभिराम दृश्यावलियों का अवलोकन करते हुए हम लौट ही रहे थे कि नजर एक विशालकाय कछुए के मॉडल पर पड़ी। प्राच्य कछुओं के दो विशालकाय मॉडल बरबस अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। 20 लाख वर्ष पूर्व कछुओंं के कवच का व्यास 3 मीटर तक होता था। घटते-घटते आज के युग में इनका आकार बहुत छोटा रह गया है। इन कछुओं के अवशेष यहां मिले हैं। ये मॉडल प्राचीन काल की याद दिला रहे थे। शिवालिक जीवाश्म उपवन क्षेत्र, प्रागैतिहासिक काल के महत्वपूर्ण जीवाश्मों का एक अनमोल वैज्ञानिकीय खजाना है, जिससे अतीत की अनेक रोचक व ज्ञान संवर्धक जानकारियां प्राप्त की गयी हैं व की जा रही हैं। शिवालिक पर्वतमाला नदियों के तेज बहाव द्वारा हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों से लाई गयी मिट्टी व पत्थरों के जमाव से बनी है। इस क्षेत्र में अधिकाशत: शैल चट्टानों की बहुतायत है। इस क्षेत्र की चट्टानों की अधिकतम उम्र विभिन्न तकनीकों के माध्यम से ढाई करोड़ वर्ष के लगभग पायी गयी है। पुरा वैज्ञानिकों के अनुसार यह क्षेत्र अतीत में घने जंगलों से आच्छादित था। पानी व वनस्पति की बहुलता से ही यहां जीव-जन्तुओं का प्रसार हुआ होगा।
आजकल इस क्षेत्र में घने वन भी नहीं रह गये हैं। अनेक प्रजातियों के पेड़-पौधे लगाकर इसे एक हरीतिमायुक्त जंगल का स्वरूप प्रदान कर दिया गया है। प्रागैतिहासिक वातावरण की संरचना करने का यथा संभव प्रयास किया गया है। झील व पशु विहार निर्मित व विकसित करने की वर्षों पुरानी योजना अभी तक फलीभूत नहीं हो पायी है। यहां एक स्थायी जीवाश्म संग्रहालय, भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग की ओर से निर्मित किया जा रहा है।
संग्रहालय के बीचों-बीच 16-33 लाख पुराना स्टीगोडान प्रजाति के हाथी के दांत का जीवाश्म दर्शनीय है। इसे किन्हीं एसवी श्री कान्तिया द्वारा एकत्रित किया गया था। हिप्पोपोटामस शिवालेंसिस प्रजाति के दरियाई घोड़े का आरएस गर्ग द्वारा मंडपा वन्य क्षेत्र, सिरमौर से एकत्रित खोपड़ी का 16-33 लाख पुराना जीवाश्म अतीत में झांकने को विवश कर देता है। एसके टांगरी द्वारा सिरमौर के शिवालिक की पहाडि़यों में स्थित टोका गांव के पास से एकत्रित ऐलीपस प्लैनीफ्रोन्स प्रजाति के हाथी के निचले जबड़े का जीवाश्म भी यहां संगृहीत हैं। सिरमौर जिले के खेड़ा के निकटवर्ती क्षेत्र से हेमीबास ट्राइक्वाडीकारसिस प्रजाति के गाय भैंस समुदाय के विशालकाय पूर्वजों के सींग सहित खोपड़ी के जीवाश्म भी इस संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं। पिंजौर सकेती फार्मेशन से ही हिरण, सूअर, गैंडा प्रजाति के जन्तुओं के पूर्वजों की खोपडि़यों व जबड़ों के जीवाश्म भी संग्रहालय में सम्मिलित हैं। इस अति महत्वपूर्ण व विश्वविख्यात जीवाश्म उपवन को पर्यटन मानचित्र पर उभारने व जनसाधारण को इसकी यथासंभव जानकारी देने की आवश्यकता है।
कभी जिऱाफ भी थे
जीवाश्मविदों के अनुसार 15 से 70 लाख वर्ष पूर्व जिऱाफ जाति के अनेक प्रतिनिधि शिवालिक की पहाडि़यों व निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करते थे। इस जाति के अंतिम जीवित प्रतिनिधि अब केवल पृथ्वी के अफ्रीका महाद्वीप में ही नि:शेष हैं। विलुप्त जिराफ प्रजाति को सिवा थीरियस जाइगैन्टियम नाम दिया गया। मुझे तंजानिया, कीनिया के नेशनल पार्कों की यात्रा के दौरान अनेक जिराफों के दर्शन का सौभाग्य मिला है। कहां अफ्रीका और कहां भारत। लाखों वर्षों पूर्व अफ्रीका व अन्य महाद्वीप आज की स्थिति में नहीं थे। बल्कि सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। जिसे पेंगिया कहा जाता है। एक रोमांचपूर्ण कल्पना तो की ही जा सकती है कि उस समय भारत से अमेरिका, अफ्रीका या जापान, आस्ट्रेलिया स्थल मार्ग से जाना संभव था। शायद जंतुओं की प्रजातियों में अन्तर्महाद्वीपीय समानता होने का एक कारण यह भी रहा हो।
जीवाश्मों का अनूठा संग्रह
हमारी नजऱ टिन के बने अस्थायी जीवाश्म संग्रहालय पर पड़ी। केवल एक बूढ़ा सा चौकीदार मात्र, इस बेशकीमती कुदरत के खजाने की रक्षार्थ नियुक्त था। उपवन या जीवाश्मों की जानकारी देने वाला कोई भी सूचनापत्र या पैम्फलेट वहां उपलब्ध नहीं था। हम लोग संग्रहालय में प्रविष्ट हुए। संभवत: बिना टिकट पर्यटकों को अत्यन्त महत्वपूर्ण जीवाश्मों के दर्शन सुलभ करने वाला भारत का यह प्रथम संग्रहालय है। सकेती व निकटवर्ती क्षेत्रों में समय-समय पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा एकत्रित किये गये जन्तु व वनस्पति जीवाश्म इस लघु संग्रहालय को समृद्ध कर रहे हैं। भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग के निर्देशन में स्थापित इस संग्रहालय में सैकड़ों जीवाश्म प्रदर्शनार्थ रखे गये हैं। वास्तविक जीवाश्मों के अतिरिक्त अनेक चित्रों के माध्यम से विभिन्न जन्तुओं के क्रमबद्ध विकास को बड़े सुन्दर व वैज्ञानिकीय ढंग से चित्रित किया गया है। तैलचित्रों के माध्यम से जीवाश्म बनने की प्रक्रिया का चित्रण सजीव एवं ज्ञानवर्धक बन पड़ा है।